पिछले दिनों एक काम से सरकारी दफ्तर RTO जाना हुआ। वहाँ मैंने दो दुनिया एक साथ देखीं। एक दुनिया नियमों की थी, जो एक लंबी कतार में धीरज के साथ अपनी बारी का इंतज़ार कर रही थी। और एक दुनिया ‘जुगाड़’ की थी, जो बिना किसी कतार के, बाबुओं के केबिन के आसपास मंडरा रही थी और जिसका काम ज़्यादा आसानी से होता दिख रहा था।
यह सिर्फ RTO की बात नहीं है, यह हमारे लगभग हर सरकारी दफ्तर की कहानी है। एक तरफ नियम हैं, और दूसरी तरफ नियमों को लांघने के रास्ते। यह देखकर गुस्सा भी आता है और दुख भी होता है। हम अक्सर इसके लिए सीधे-सीधे सिस्टम को, यानी सरकारी अधिकारियों को दोषी ठहरा देते हैं। और इसमें कुछ सच्चाई है भी। जब कोई अधिकारी कहता है कि “यह तो सिस्टम का हिस्सा है, हम क्या करें?” तो वह अपनी ज़िम्मेदारी से मुँह मोड़ रहा होता है। जब वह रिश्वत को ‘आपकी सुविधा’ का नाम देता है, तो वह निश्चित रूप से गलत है।
लेकिन क्या सिक्का का सिर्फ एक ही पहलू होता है?
आज हमें थोड़ी देर रुककर यह सोचना होगा कि इस ‘सिस्टम’ को चलाने में कहीं हमारा भी तो हाथ नहीं है?
समस्या एक ताले की तरह है। यह सच है कि सरकारी बाबू उस ताले को बनाकर बैठे हैं, लेकिन उस ताले को खोलने की चाबी तो हम अपनी ही जेब से निकालकर उनके हाथ में देते हैं। जब हम लाइन में लगने से बचने के लिए या किसी टेस्ट से बचने के लिए ‘दलाल’ का सहारा लेते हैं, तो हम उस भ्रष्ट सिस्टम में अपनी तरफ से एक हिस्सेदारी डाल रहे होते हैं।
हम जल्दी में हैं। हमें धैर्य नहीं है। हमें लगता है कि थोड़ा पैसा देकर अगर काम आसानी से हो जाता है, तो इसमें हर्ज़ क्या है? यही ‘हर्ज़ क्या है’ वाली सोच धीरे-धीरे एक नासूर बन गई है।
यह एक साझा विफलता है। प्रशासन इसलिए लापरवाह है क्योंकि हम नागरिक जागरूक नहीं हैं। और हम नागरिक इसलिए शॉर्टकट खोजते हैं क्योंकि प्रशासन ने प्रक्रियाओं को इतना जटिल बना दिया है। दोनों एक-दूसरे की गलतियों को बढ़ावा दे रहे हैं।
लेकिन यह लेन-देन, यह ‘सुविधा शुल्क’, यह शॉर्टकट सिर्फ दफ्तरों की फाइलों तक सीमित नहीं रहता। यह वहाँ से निकलकर हमारी सड़कों पर आ जाता है। और जब यह हमारी सड़कों पर आता है, तो यह स्याही से नहीं, लहू से अपनी कहानी लिखता है।
जब गलत दिशा से आती हुई एक गाड़ी किसी हँसते-खेलते परिवार को रौंद देती है… जब एक तेज रफ़्तार कार किसी माँ की गोद सूनी कर जाती है… जब किसी पिता का कंधा अपने जवान बेटे का बोझ उठाते हुए काँप जाता है… उस एक खौफनाक पल में हम किसे दोष दें?
- उस ड्राइवर को? जिसने शायद कभी ईमानदारी से गाड़ी चलाना सीखा ही नहीं और पैसे देकर ‘ड्राइविंग का अधिकार’ खरीद लिया।
- उस दलाल को? जिसने चंद नोटों के लिए एक चलता-फिरता बम सड़क पर छोड़ दिया।
- उस अधिकारी को? जिसने अपनी आँखें और अपना ज़मीर, दोनों बंद करके उस फाइल पर दस्तखत कर दिए थे।
- या फिर हम खुद को? जो हर रोज़ इन दफ्तरों में यह सब होते हुए देखते हैं, और ‘चलता है’ कहकर आगे बढ़ जाते हैं। जो रिश्वत को ‘सुविधा’ मानकर चुपचाप स्वीकार कर लेते हैं और इस जानलेवा तंत्र का हिस्सा बन जाते हैं।
सच तो यह है कि उस सड़क पर बिखरा हुआ लहू, उन सभी के हाथों पर लगा है। उस दुर्घटना की चीख हम सभी के कानों में गूँजनी चाहिए। वह सिर्फ एक हादसा नहीं है, वह हमारी सामूहिक लापरवाही और हमारे मरे हुए ज़मीर का नतीजा है। ज़िम्मेदार हम सब हैं।
तो रास्ता क्या है?
इसका समाधान किसी क्रांति या आंदोलन से नहीं, बल्कि एक शांत और सामूहिक बदलाव से आएगा। यह बदलाव दोनों तरफ से शुरू होना चाहिए।
प्रशासन और सरकार से आग्रह:
- प्रक्रियाओं को सरल बनाइए: नियमों को इतना आसान और पारदर्शी बना दीजिए कि किसी आम आदमी को ‘दलाल’ की ज़रूरत ही महसूस न हो। जब ईमानदारी का रास्ता सबसे आसान रास्ता होगा, तो लोग उसे ही चुनेंगे।
- टेक्नोलॉजी को अपनाइए: लाइसेंस बनवाने से लेकर ज़मीन की रजिस्ट्री तक, हर काम को फेसलेस और ऑनलाइन कर दीजिए। जब अधिकारी और नागरिक के बीच सीधा संपर्क ही नहीं होगा, तो लेन-देन की गुंजाइश भी खत्म हो जाएगी।
- अपने लोगों को जवाबदेह बनाइए: जो अधिकारी अच्छा काम कर रहे हैं, उन्हें सम्मानित कीजिए। और जो जानबूझकर काम को लटकाते हैं या गलत करते हैं, उन पर कार्रवाई कीजिए। डर कानून का होना चाहिए, आम आदमी का नहीं।
और हम नागरिकों की ज़िम्मेदारी:
- थोड़ा धैर्य रखना सीखें: हर काम तुरंत नहीं हो सकता। लाइन में लगना या नियमों का पालन करना कोई सज़ा नहीं, बल्कि एक सभ्य समाज की निशानी है। शॉर्टकट की आदत हमें ही सबसे ज़्यादा नुकसान पहुँचा रही है।
- ‘ना’ कहना सीखें: जब कोई आपसे रिश्वत माँगे, तो विनम्रता लेकिन दृढ़ता से ‘ना’ कहना सीखें। शुरुआत में परेशानी होगी, लेकिन अगर हम सब मिलकर यह करना शुरू कर दें, तो माँगने वालों का साहस अपने आप टूट जाएगा।
- अपने बच्चों को क्या सिखा रहे हैं?: सबसे बड़ा सवाल यह है। क्या हम उन्हें भी यही सिखा रहे हैं कि ‘जुगाड़’ से काम निकालना ही समझदारी है? या हम उन्हें ईमानदारी और धैर्य का पाठ पढ़ा रहे हैं? जैसा हम आज बोएंगे, वैसा ही समाज कल काटेंगे।
एक चुनाव, जो हमें हर रोज़ करना है
यह देश किसी सरकार या कुछ अधिकारियों का नहीं है, यह हम सबका है। इसे बेहतर बनाने की ज़िम्मेदारी भी हम सबकी साझा है। हर दिन, हर सरकारी दफ्तर में, हर मोड़ पर, हमारे सामने एक चुनाव होता है – आसान रास्ते और सही रास्ते के बीच।
हम या तो ‘चलता है’ कहकर उस भ्रष्ट तंत्र का हिस्सा बने रह सकते हैं, और फिर किसी दिन किसी अपने के साथ हुए हादसे पर सिस्टम को कोस सकते हैं। या फिर हम आज से ही थोड़ी असुविधा सहकर, सही रास्ते पर चलने का साहस दिखा सकते हैं।
यह सिर्फ एक लेख नहीं, एक आमंत्रण है। एक निमंत्रण है उस मौन को तोड़ने का, उस आदत को बदलने का, और अपनी ज़िम्मेदारी को स्वीकार करने का। क्योंकि जिस दिन इस देश का आम नागरिक और प्रशासन, दोनों यह तय कर लेंगे कि उन्हें एक स्वच्छ और ईमानदार व्यवस्था चाहिए, उस दिन किसी की हिम्मत नहीं होगी कि वह कानून का सौदा कर सके, और किसी सड़क पर कोई बेगुनाह ज़िंदगी इस लापरवाही की भेंट नहीं चढ़ेगी।
चुनाव हमारा है।
Great thoughts… Milkar hi badlaw aayega…