नागरिक की भूमिका: क्या हम देश के निर्माता हैं या सह-अपराधी?

नमस्कार साथियों,

कभी रात के सन्नाटे में खुद से एक सवाल पूछिएगा। वो सवाल जो अक्सर हम भीड़ के शोर में, दिन की भागदौड़ में और दूसरों पर ऊँगली उठाने की जल्दबाज़ी में अनसुना कर देते हैं। सवाल यह है: “अगर यह देश एक बीमार शरीर है, तो क्या इस बीमारी को फैलाने में कुछ वायरस मेरे भीतर भी हैं?”

यह सवाल चुभता है। क्योंकि यह हमें कठघरे में खड़ा करता है। उस कठघरे में, जहाँ कोई वकील नहीं होता, कोई जज नहीं होता, सिवाय हमारी अपनी अंतरात्मा के।

आज मैं आपसे उस भूमिका की बात करने नहीं आया हूँ जो हमें किताबों में पढ़ाई जाती है। मैं आज उस आईने की बात करने आया हूँ जिसमें हमें अपना अक्स देखकर यह तय करना है कि हम इस महान लोकतंत्र के नागरिक हैं, मूक दर्शक हैं, या जाने-अनजाने में इसके सह-अपराधी।

लोकतंत्र की भीड़ और नागरिक का अकेलापन

हम लगभग एक अरब चालीस करोड़ लोगों का विशाल कारवां हैं। पर विडंबना देखिए, इस भीड़ में अधिकांश व्यक्ति खुद को ‘अकेला’ महसूस करता है। “मेरे अकेले के करने से क्या होगा?” – यह वाक्य हमारे राष्ट्र का अनौपचारिक ‘निराशा-गान’ बन चुका है। यह हमारी व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी पर डाला गया सबसे सुविधाजनक और सबसे खतरनाक पर्दा है।

हम भूल जाते हैं कि लोकतंत्र भीड़ का तंत्र नहीं, बल्कि जागरूक इकाइयों का संघ है। यह एक विशाल चेन की तरह है, और आप इसकी एक कड़ी हैं। अगर एक भी कड़ी कमज़ोर होकर कहती है, “मेरे टूटने से क्या होगा?”, तो पूरी चेन अपनी ताकत खो देती है। आज हमारी राष्ट्रीय चेतना की चेन इसी ‘एक कड़ी’ के भ्रम के कारण कमज़ोर पड़ रही है।

स्वामी विवेकानंद ने कहा था, “उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य ना प्राप्त हो जाए।” उन्होंने यह किसी समूह या सरकार से नहीं कहा था। उन्होंने यह हर एक व्यक्ति, हर एक ‘इकाई’ से कहा था। शक्ति व्यक्ति में निहित है, भीड़ में नहीं।

शिकायतों का कोहरा और ज़िम्मेदारी का सूरज

हमारी दिनचर्या पर गौर कीजिए। सुबह की पहली चाय से लेकर रात के खाने तक, हम शिकायतों के घने कोहरे में लिपटे रहते हैं – सड़कों पर गड्ढे हैं, सिस्टम भ्रष्ट है, राजनीति गंदी है, युवा बिगड़ रहा है। यह कोहरा इतना घना है कि हमें ज़िम्मेदारी का सूरज दिखाई ही नहीं देता।

  • हम उस भ्रष्ट सिस्टम को कोसते हैं, लेकिन ट्रैफिक पुलिस को 100 रुपये देकर ख़ुशी-ख़ुशी निकल जाते हैं।
  • हम राजनीति को गंदा कहते हैं, लेकिन जाति और धर्म के नाम पर वोट देते समय एक पल भी नहीं सोचते।
  • हम युवाओं के बिगड़ने की चिंता करते हैं, पर अपने बच्चों को यह नहीं सिखाते कि असफलता को कैसे स्वीकारें या दूसरों का सम्मान कैसे करें।
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  • आदि-आदि

यह दोगलापन, यह दोहरा मापदंड ही वह ज़हर है जो हमारे लोकतंत्र की जड़ों को खोखला कर रहा है। समस्या बाहर नहीं है, समस्या हमारे भीतर है। समस्या हमारे नज़रिए में है। हम समाधान का हिस्सा बनना ही नहीं चाहते, क्योंकि शिकायत करने में कोई मेहनत नहीं लगती, पर ज़िम्मेदारी उठाने में हिम्मत और चरित्र लगता है।

क्रांति का सही पता – सड़क नहीं, आपका घर

हमें लगता है कि बड़े बदलाव सड़कों पर नारे लगाने से या संसद में कानून बनाने से आते हैं। यह आधा सच है। असली और स्थायी क्रांति की शुरुआत एक बहुत ही शांत और पवित्र जगह से होती है – आपका अपना घर।

  • पहली क्रांति: जब आप अपने बेटे को सिखाते हैं कि रोना कमज़ोरी नहीं, और अपनी बेटी को सिखाते हैं कि उसकी ‘ना’ का सम्मान होना चाहिए।
  • दूसरी क्रांति: जब आप कूड़े की थैली को अपनी गाड़ी से बाहर फेंकने की बजाय, उसे घर लाकर डस्टबिन में डालते हैं।
  • तीसरी क्रांति: जब आप व्हाट्सएप पर आई किसी नफ़रत भरी पोस्ट को डिलीट कर देते हैं, बजाय उसे दस ग्रुप में फॉरवर्ड करने के।
  • चौथी क्रांति: जब आप अपनी कामवाली बाई या अपने ऑफिस के चपरासी से ‘तू’ की जगह ‘आप’ कहकर बात करते हैं।
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  • आदि-आदि

ये छोटी-छोटी क्रांतियाँ हैं जो हमारे चरित्र का निर्माण करती हैं। और चरित्रवान नागरिकों से ही एक चरित्रवान राष्ट्र का निर्माण होता है। हमें मोमबत्तियाँ लेकर सड़कों पर निकलने से पहले, अपने भीतर सत्य, अनुशासन और करुणा का दीया जलाना होगा।

सिर्फ नागरिक नहीं, राष्ट्र-निर्माता बनिए

दोस्तों, अब समय आ गया है कि हम ‘नागरिक’ शब्द की परिभाषा को बदल दें। हम सिर्फ इस देश के निवासी नहीं हैं। हम इसके निर्माता हैं, इसके भाग्य-विधाता हैं। हर बार जब आप कोई सही काम करते हैं, तो आप इस देश की नींव में एक मज़बूत ईंट रखते हैं। और हर बार जब आप किसी गलत काम में भागीदार बनते हैं, तो आप उसी नींव में एक दीमक छोड़ देते हैं।

तो अगली बार जब आप आईने में देखें, तो खुद से पूछें: आज मैंने इस देश की नींव में एक ईंट रखी या एक दीमक छोड़ा?

जिस दिन हममें से हर व्यक्ति यह सवाल खुद से पूछने का साहस कर लेगा, उस दिन किसी सरकार या सिस्टम को हमें बदलने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। हम खुद ही उस भारत का निर्माण कर लेंगे जिसका सपना हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने देखा था।

चलिए, शिकायतों के आरामदायक अँधेरे से बाहर निकलकर, ज़िम्मेदारी की चुभती हुई धूप में खड़े होने का साहस करें। क्योंकि इसी धूप में एक नए, मज़बूत और आत्मनिर्भर भारत का बीज अंकुरित होगा।

आपका,
पंकज शुक्ला

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