युवा चेतना का जागरण: स्वास्थ्य, शालीनता, स्वावलंबन और सेवा से राष्ट्र निर्माण का महायज्ञ

राष्ट्र की धड़कन – युवा शक्ति

युवावस्था, जीवन का वह वसंत है जहाँ ऊर्जा, उत्साह, सृजनात्मकता और परिवर्तन की अदम्य आकांक्षा अपने चरम पर होती है। किसी बहती हुई नदी की तरह, युवा शक्ति में अपार संभावनाएं और प्रचंड वेग होता है। यदि इस वेग को सही दिशा और सुदृढ़ किनारे मिल जाएं, तो यह राष्ट्र रूपी भूमि को सिंचित कर उसे अभूतपूर्व रूप से उर्वर बना सकती है। परंतु यदि इसे दिशाहीन छोड़ दिया जाए, तो यही ऊर्जा विध्वंसक भी साबित हो सकती है। इसी महती आवश्यकता को समझते हुए, गहन चिंतन और अनुभव के आधार पर, युवा चेतना को जागृत करने और उसे राष्ट्र निर्माण के महायज्ञ में आहुत करने हेतु पं. श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा चार सुनिश्चित, आधारभूत सूत्र निर्धारित किए गए हैं। ये सूत्र मात्र शब्द नहीं, बल्कि व्यक्ति और राष्ट्र के समग्र उत्थान के सशक्त माध्यम हैं। आइए, इन जीवन-सूत्रों की गहराइयों में उतरें।

प्रथम सूत्र: स्वास्थ्य (समग्र आरोग्य) – “स्वस्थ युवक … सबल राष्ट्र”

स्वास्थ्य जीवन का मूल है, वह नींव जिस पर व्यक्तित्व का भव्य भवन खड़ा होता है। यहाँ स्वास्थ्य का अर्थ केवल बीमारियों की अनुपस्थिति नहीं, बल्कि एक बहुआयामी, सकारात्मक और जीवंत अवस्था है, जैसा कि भारतीय मनीषा और आधुनिक विज्ञान दोनों मानते हैं।

  • शारीरिक स्वास्थ्य: यह सबसे प्रत्यक्ष आयाम है। इसमें संतुलित, सात्विक एवं पौष्टिक आहार, नियमित योगाभ्यास व व्यायाम, पर्याप्त नींद, स्वच्छता, तथा नशीले पदार्थों व व्यसनों से पूर्ण दूरी शामिल है। शारीरिक रूप से स्वस्थ युवा ही कर्मठ, ऊर्जावान और चुनौतियों का सामना करने में सक्षम होता है। इसकी उपेक्षा व्यक्ति को निष्क्रिय और राष्ट्र को कमजोर बनाती है।
  • मानसिक स्वास्थ्य: विचारों की स्पष्टता, सकारात्मक दृष्टिकोण, तनाव सहने और प्रबंधित करने की क्षमता, भावनात्मक स्थिरता और निरंतर सीखने की जिज्ञासा मानसिक स्वास्थ्य के परिचायक हैं। ध्यान, स्वाध्याय, सत्संग और रचनात्मक गतिविधियों से इसे पोषित किया जा सकता है। मानसिक रूप से सशक्त युवा ही सही निर्णय ले पाता है और अवसाद या भटकाव से बचता है।
  • सामाजिक स्वास्थ्य: मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। स्वस्थ पारिवारिक एवं सामाजिक संबंध, प्रभावी संवाद कौशल, सहयोग और समूह में कार्य करने की क्षमता (टोली भावना) सामाजिक स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य हैं। यह व्यक्ति को समाज से जोड़ता है और उसे एक जिम्मेदार नागरिक बनाता है।
  • आध्यात्मिक स्वास्थ्य: जीवन के मूल्यों और उद्देश्य को समझना, नैतिक सिद्धांतों का पालन, अंतरात्मा की आवाज सुनना, प्रकृति और सृष्टि से जुड़ाव महसूस करना, कृतज्ञता का भाव – ये सब आध्यात्मिक स्वास्थ्य के अंग हैं। यह जीवन को गहराई और दिशा प्रदान करता है, जिससे युवा भौतिकता से परे सच्ची शांति और आनंद का अनुभव कर पाता है।

इन चारों आयामों का संतुलन ही समग्र स्वास्थ्य है। जब युवा इस समग्र स्वास्थ्य को प्राप्त करता है, तो वह न केवल व्यक्तिगत रूप से सफल होता है, बल्कि अपनी ऊर्जा और क्षमता से एक सबल राष्ट्र की नींव रखता है।

द्वितीय सूत्र: शालीनता (संस्कारित व्यवहार) – “शालीन युवक … श्रेष्ठ राष्ट्र”

शालीनता केवल बाहरी दिखावा या औपचारिकता नहीं, बल्कि आंतरिक संस्कारों और विनम्रता का सहज प्रकटीकरण है। यह चरित्र की वह सुगंध है जो स्वतः फैलती है और संपर्क में आने वाले सभी को प्रभावित करती है।

  • विनम्रता और सम्मान: अपने से बड़ों, गुरुजनों, माता-पिता के प्रति आदर; अपने सहपाठियों और छोटों के प्रति स्नेह; सभी व्यक्तियों (लिंग, जाति, धर्म, वर्ग से परे) के प्रति सम्मान का भाव शालीनता की जड़ है।
  • वाणी और व्यवहार में संयम: सोच-समझकर, सत्य, प्रिय और हितकर बोलना; अपशब्दों, कटु वचनों और परनिंदा से बचना; आवेश में न आना और मर्यादित आचरण करना शालीनता के लक्षण हैं। आज के डिजिटल युग में ऑनलाइन संवाद में भी यही शालीनता अपेक्षित है।
  • अनुशासन और नैतिकता: नियमों का पालन, समय की पाबंदी, स्वच्छता, ईमानदारी, सत्यनिष्ठा और अपने कर्तव्यों के प्रति सजगता शालीन व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं।
  • सांस्कृतिक बोध: अपनी गौरवशाली संस्कृति और परंपराओं को जानना और उनका सम्मान करना, साथ ही अन्य संस्कृतियों के प्रति भी खुलापन और आदर रखना शालीनता को व्यापक बनाता है।

शालीनता समाज में विश्वास, सद्भाव और सकारात्मकता का संचार करती है। यह टकराव और कटुता को कम करती है। जिस राष्ट्र के युवा शालीन, सुसंस्कृत और चरित्रवान होते हैं, वह राष्ट्र अपनी नैतिक और सांस्कृतिक उत्कृष्टता के कारण विश्व पटल पर एक श्रेष्ठ राष्ट्र के रूप में पहचाना जाता है।

तृतीय सूत्र: स्वावलंबन (आत्मनिर्भरता) – “स्वावलंबी युवक … संपन्न राष्ट्र”

स्वावलंबन का अर्थ है अपने पैरों पर खड़े होने की क्षमता – अपनी मूलभूत आवश्यकताओं, निर्णयों और जीवन-पथ के लिए दूसरों पर आश्रित न रहना। यह पुरुषार्थ, आत्मविश्वास और आत्म-सम्मान का प्रतीक है।

  • शैक्षिक एवं बौद्धिक स्वावलंबन: ज्ञान और शिक्षा केवल डिग्री प्राप्त करना नहीं, बल्कि निरंतर सीखते रहने की प्रवृत्ति, आलोचनात्मक चिंतन (critical thinking), समस्या-समाधान की योग्यता और विवेकपूर्ण निर्णय लेने की क्षमता है।
  • आर्थिक स्वावलंबन: अपनी योग्यता और परिश्रम से आजीविका अर्जित करना। इसमें आवश्यक कौशल (skills) प्राप्त करना, ‘श्रम की महत्ता’ (dignity of labour) को समझना, उद्यमशीलता (entrepreneurship) का विकास करना और वित्तीय साक्षरता (financial literacy) शामिल है।
  • भावनात्मक स्वावलंबन: अपनी भावनाओं को समझना, उन्हें नियंत्रित करना, विपरीत परिस्थितियों में धैर्य न खोना और दूसरों की स्वीकृति या प्रशंसा पर अत्यधिक निर्भर न रहना।
  • कार्यात्मक स्वावलंबन: अपने दैनिक जीवन के कार्य स्वयं कुशलतापूर्वक कर पाना, संसाधनों का उचित प्रबंधन करना और तकनीकी रूप से सक्षम होना।

स्वावलंबी युवा राष्ट्र पर बोझ नहीं बनता, बल्कि राष्ट्र की संपत्ति बनता है। वह नवाचार (innovation) करता है, रोजगार पैदा करता है, और देश की आर्थिक प्रगति में सक्रिय योगदान देता है। आत्मनिर्भर युवाओं से ही एक आत्मनिर्भर और संपन्न राष्ट्र का निर्माण होता है।

चतुर्थ सूत्र: सेवाभाव (निःस्वार्थ योगदान) – “सेवाभावी युवक … सुखी राष्ट्र”

सेवा, ‘स्व’ के संकीर्ण दायरे से निकलकर ‘पर’ अर्थात् समाज और सृष्टि के हित में निःस्वार्थ भाव से योगदान करने का नाम है। यह करुणा, सहानुभूति और ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना का व्यावहारिक रूप है।

  • सेवा की प्रेरणा: सेवा का मूल दूसरों के दुःख-दर्द को महसूस करने (सहानुभूति) और उसे दूर करने की उत्कट इच्छा (करुणा) में है। यह केवल कर्तव्य नहीं, बल्कि आत्मिक विकास और आनंद का मार्ग भी है।
  • सेवा के विविध रूप: यह छोटे-छोटे कार्यों से शुरू हो सकती है – किसी वृद्ध की मदद करना, रक्तदान करना, स्वच्छता अभियान में भाग लेना, पर्यावरण संरक्षण के लिए पौधे लगाना, ज्ञान या कौशल साझा करना, जरूरतमंदों को भोजन या वस्त्र देना, सामुदायिक परियोजनाओं में स्वयंसेवा करना।
  • समाज और राष्ट्र के प्रति दायित्व: अपने सामाजिक और राष्ट्रीय कर्तव्यों का ईमानदारी से निर्वहन करना भी सेवा है। राष्ट्रीय संपत्ति की रक्षा करना, कानूनों का पालन करना, मतदान करना, और देश की एकता व अखंडता के लिए सजग रहना।
  • सेवा का प्रभाव: सेवा न केवल प्राप्तकर्ता को लाभ पहुंचाती है, बल्कि सेवा करने वाले के हृदय में संतोष, शांति और सार्थकता का भाव जगाती है। यह समाज में परस्पर प्रेम, विश्वास और सहयोग को बढ़ाती है।

जिस समाज के नागरिक, विशेषकर युवा, सेवाभावी होते हैं, वहाँ स्वार्थपरता कम होती है और सामूहिकता का विकास होता है। ऐसे समाज में समस्याओं का समाधान मिलकर किया जाता है और सच्ची खुशी केवल भौतिक समृद्धि में नहीं, बल्कि आपसी सहयोग और परोपकार में ढूंढी जाती है। सेवाभावी युवाओं से ही एक सच्चे अर्थों में सुखी राष्ट्र का उदय होता है।

सूत्रों की परस्पर निर्भरता एवं कार्यान्वयन

यह समझना महत्वपूर्ण है कि स्वास्थ्य, शालीनता, स्वावलंबन और सेवा, ये चारों सूत्र अलग-थलग न होकर एक-दूसरे से गहराई से जुड़े और परस्पर पोषक हैं; अच्छा स्वास्थ्य जहाँ स्वावलंबन व सेवा के लिए ऊर्जा प्रदान करता है, वहीं शालीनता आपसी सहयोग को संभव बनाती है, स्वावलंबन सेवा के लिए आवश्यक क्षमता व संसाधन देता है, और सेवाभाव जीवन को सार्थकता प्रदान कर मानसिक व आध्यात्मिक स्वास्थ्य को सुदृढ़ करता है। इन अंतर्निहित सूत्रों को युवाओं के जीवन में वास्तविक रूप से स्थापित करने के लिए एक सुनियोजित, बहुआयामी और सतत प्रयास अनिवार्य है।

इसके अंतर्गत, संगठनों में समर्पित व प्रशिक्षित व्यक्तियों के समूह बनाकर स्पष्ट कार्ययोजना के साथ कार्य करना, शैक्षणिक संस्थानों को केंद्र बनाकर शिक्षकों व प्रबंधन के सहयोग से इन्हें पाठ्यक्रम व गतिविधियों में एकीकृत करना, अन्य युवा संगठनों व संस्थाओं के साथ प्रभावी सहयोग स्थापित करना, तथा सार्वभौमिक आध्यात्मिक मूल्यों व राष्ट्रीय चेतना पर आधारित समावेशी दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है। साथ ही, परिवार की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करना, सकारात्मक रोल मॉडल प्रस्तुत करना, मीडिया व तकनीक का रचनात्मक उपयोग, अनुभवात्मक अधिगम के अवसर प्रदान करना, उपयुक्त संसाधन विकसित करना और युवाओं के प्रयासों को पहचान व प्रोत्साहन देना, इस समग्र रणनीति के अभिन्न अंग हैं ताकि ये जीवन-मूल्य युवा पीढ़ी के चरित्र और आचरण में स्थायी रूप से समाहित हो सकें।

भविष्य के लिए आह्वान

स्वास्थ्य, शालीनता, स्वावलंबन और सेवाभाव – ये चार सूत्र उस मशाल की तरह हैं जो युवा पीढ़ी को अज्ञान, निष्क्रियता और भटकाव के अंधकार से निकालकर एक उज्ज्वल, उद्देश्यपूर्ण और गौरवशाली भविष्य की ओर ले जा सकती है। जब भारत का युवा इन गुणों से ओत-प्रोत होगा, तो उसे विश्वगुरु बनने से कोई नहीं रोक सकता। यह केवल एक सपना नहीं, बल्कि एक प्राप्त करने योग्य लक्ष्य है, जिसके लिए प्रत्येक युवा, अभिभावक, शिक्षक, संगठन और नीति-निर्माता को अपना योगदान देना होगा। आइए, हम सब मिलकर इस युवा चेतना के जागरण के महायज्ञ में अपनी समिधा डालें और एक ऐसे भारत का निर्माण करें जो सबल हो, श्रेष्ठ हो, संपन्न हो और परम सुखी हो।

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